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NDDY 1ST YR 1.11 प्राकृतिक चिकित्सा लेख

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प्राकृतिक चिकित्सा - १ : स्वास्थ्य क्या है?

स्वस्थ रहना सबसे बड़ा सुख है। कहावत भी है- ‘पहला सुख निरोगी काया’। कोई आदमी तभी अपने जीवन का पूरा आनन्द उठा सकता है, जब वह शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहे। क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है, इसलिए मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी शारीरिक स्वास्थ्य अनिवार्य है।

ऋषियों ने कहा है- ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ अर्थात् यह शरीर ही धर्म का श्रेष्ठ साधन है। यदि हम धर्म में विश्वास रखते हैं और स्वयं को धार्मिक कहते हैं, तो अपने शरीर को स्वस्थ रखना हमारा पहला कर्तव्य है। यदि शरीर स्वस्थ नहीं है, तो जीवन हमारे लिए भारस्वरूप हो जाता है।

एक विदेशी विद्वान् डा. बेनेडिक्ट जस्ट ने कहा है- ‘उत्तम स्वास्थ्य वह अनमोल रत्न है, जिसका मूल्य तब ज्ञात होता है, जब वह खो जाता है।’ एक शायर के शब्दों में- ‘कद्रे-सेहत मरीज से पूछो, तन्दुरुस्ती हजार नियामत है।’

प्रश्न उठता है कि स्वास्थ्य क्या है अर्थात् किस व्यक्ति को हम स्वस्थ कह सकते हैं? साधारण रूप से यह माना जाता है कि किसी प्रकार का शारीरिक और मानसिक रोग न होना ही स्वास्थ्य है। यह एक नकारात्मक परिभाषा है और सत्य के निकट भी है, परन्तु पूरी तरह सत्य नहीं। वास्तव में स्वास्थ्य का सीधा सम्बंध क्रियाशीलता से है। जो व्यक्ति शरीर और मन से पूरी तरह क्रियाशील है, उसे ही पूर्णतः स्वस्थ कहा जा सकता है। कोई रोग हो जाने पर क्रियाशीलता में कमी आती है, इसलिए स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है।

प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों में स्वास्थ्य की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं दी गयी है। ऐलोपैथी और होम्योपैथी के चिकित्सक किसी भी प्रकार के रोग के अभाव को ही स्वास्थ्य मानते हैं। वे रोग को या उसके अभाव को तो माप सकते हैं, परन्तु स्वास्थ्य को मापने का उनके पास कोई पैमाना नहीं है। रोग के अभाव को मापने के लिए उन्होंने कुछ पैमाने बना रखे हैं, जैसे हृदय की धड़कन, रक्तचाप, लम्बाई या उम्र के अनुसार वजन, खून में हीमोग्लोबिन की मात्रा आदि। इनमें से एक भी बात अनुभव द्वारा निर्धारित सीमाओं से कम या अधिक होने पर वे व्यक्ति को रोगी घोषित कर देते हैं और अपने ज्ञान के अनुसार उसकी चिकित्सा भी शुरू कर देते हैं।

इसके विपरीत आयुर्वेद में स्वास्थ्य की पूर्ण परिभाषा दी गयी है। आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ सुश्रुत संहिता में ऋषि ने लिखा है-
समदोषाः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः स्वस्थ इत्यभिधीयते।।
अर्थात् जिसके तीनों दोष (वात, पित्त एवं कफ) समान हों, जठराग्नि सम (न अधिक तीव्र, न अति मन्द) हो, शरीर को धारण करने वाली सात धातुएँ (रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य) उचित अनुपात में हों, मल-मूत्र की क्रियाएँ भली प्रकार होती हों और दसों इन्द्रियाँ (आँख, कान, नाक, त्वचा, रसना, हाथ, पैर, जिह्वा, गुदा और उपस्थ), मन और इन सबका स्वामी आत्मा भी प्रसन्न हो, तो ऐसे व्यक्ति को स्वस्थ कहा जाता है।

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स्वास्थ्य पर दवाओं का कुप्रभाव

बचपन से ही लोगों के मन में यह बात बैठ जाती है कि यदि कोई व्यक्ति बीमार है या उसे स्वास्थ्य सम्बंधी मामूली सी भी शिकायत है, तो वह दवा के बिना ठीक ही नहीं होगा। इसलिए अस्वस्थ होते ही वे किसी न किसी दवा की तलाश करते हैं या डाक्टरों-वैद्यों के पास भागते हैं। वे यह जानने की कोशिश नहीं करते कि वह बीमारी या शिकायत क्यों पैदा हुई अर्थात् उसका कारण क्या है। यदि वे इसका पता लगा लें, तो वह कारण दूर कर देने पर अस्वस्थता भी दूर हो सकती है। परन्तु लोग इतना सोचने का कष्ट नहीं करते और प्रायः मौसम या किसी अज्ञात वस्तु को अपनी बीमारी का कारण मान लेते हैं और विश्वास करते हैं कि शीघ्र ही कोई दवा खा लेने पर वे स्वस्थ हो जायेंगे। वे बीमार पड़ने और उसके लिए दवा खाने को इतनी स्वाभाविक बात समझते हैं कि दवा के बिना स्वस्थ होने की बात उन्हें अस्वाभाविक और अविश्वसनीय लगती है।

यदि घर में कोई बड़ा-बूढ़ा होता है, तो वह घरेलू चीजों से बने नुस्खे से उनकी बीमारी दूर करने की कोशिश करता है और आश्चर्य नहीं कि कई बार ये नुस्खे सफल भी हो जाते हैं। इसका कारण यह हो सकता है कि ये नुस्खे मूलतः आयुर्वेद की बुनियाद पर बने होते हैं। लेकिन अधिकतर ये भी असफल हो जाते हैं, क्योंकि ये बीमारी के मूल कारण को ध्यान में रखे बिना ही आजमाये जाते हैं। आयुर्वेद का प्रसार कम हो जाने के कारण उसका ज्ञान भी सीमित हो गया है और अधिकांश लोग केवल सुने-सुनाए नुस्खों को ही आजमाते हैं।

एक दवा असफल हो जाने पर लोग उससे बेहतर दवा की तलाश करते हैं। यह तलाश प्रायः अंग्रेजी दवाओं पर जाकर समाप्त होती है। कई बार वे स्वयं उन्हें खरीद लाते हैं और कभी-कभी डाक्टरों के पास जाकर लिखवा लाते हैं। वे सोचते हैं कि ये दवाएँ बहुत पढ़े-लिखे डाक्टर ने लिखी हैं, योग्य लोगों द्वारा बड़े-बड़े कारखानों में बनायी गयी हैं, नाम भी अंग्रेजी में हैं और महँगी भी हैं, इसलिए अवश्य ही इनमें कुछ गुण होगा। इसलिए वे पूरी निष्ठा और विश्वास से उनका सेवन करते हैं। अधिकांश में उन्हें प्रारम्भिक लाभ भी हो जाता है, जिससे वे डाक्टरों और उनकी दवाओं के प्रशंसक बन जाते हैं।

परन्तु कुछ दिन रोग दबे रहने पर वह फिर से उभरता है, क्योंकि ये दवाएँ किसी रोग के कारण को दूर नहीं करतीं, बल्कि केवल उसके लक्षणों को कम कर देती हैं। उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि किसी व्यक्ति को सिरदर्द है। आयुर्वेद की दृष्टि से इसके 175 कारण हो सकते हैं। लेकिन रोगी दर्द के कारण की चिन्ता किए बिना केवल उससे तत्काल मुक्ति पाने से लिए दर्दनाशक दवा की शरण में चला जाता है और कुछ समय के लिए उससे मुक्त भी हो जाता है। दर्दनाशक दवाएँ दर्द के कारण को दूर करने की दृष्टि से नहीं, बल्कि दर्द का अनुभव न हो इस दृष्टि से बनायी गयी होती हैं। दूसरे शब्दों में, वे हमारे नाड़ी तंत्र के उन तंतुओं को निष्क्रिय कर देती हैं, जो दर्द की सूचना हमारे मस्तिष्क को देते हैं। इससे हमें दर्द का पता ही नहीं चलता और हम समझते हैं कि दर्द चला गया। परन्तु वास्तव में दर्द जाता ही नहीं, क्योंकि उसका जो मूल कारण है वह दूर नहीं हुआ होता।

सिरदर्द ही नहीं वरन् सभी प्रकार के रोगों में यही अनुभव होता है। उल्टी आ रही है, तो दवा से उसे रोक देते हैं। दस्त आ रहे हैं, तो दस्तों को रोक देते हैं। जुकाम हो गया है, तो कफ का निकलना रोक देते हैं। इससे रोग के मूल कारण शरीर में ही बने रहते हैं और अन्दर ही अन्दर प्रबल होते रहते हैं। रोग के वे लक्षण किसी दिन फिर जोर से उभर आते हैं अर्थात् रोग वापस आ जाता है और पहले से अधिक जोर से आता है। ऐसा होते ही मरीज फिर डाक्टरों की शरण में जाता है और इस बार डाक्टर कोई अधिक तेज दवा लिख देते हैं। कई बार उनसे फिर आराम मिल जाता है।

बहुत बार ऐसा भी होता है कि रोग किसी नये रूप में बाहर आता है और डाक्टर उसी के अनुसार दवाओं की संख्या और मात्रा बढ़ा देते हैं। ये दवाएँ फिर किसी अन्य रोग को पैदा कर देती हैं। जैसे-जैसे रोग बढ़ता है, वैसे-वैसे दवाएँ भी बढ़ती हैं और जैसे-जैसे दवाएँ बढ़ती हैं, वैसे-वैसे रोग भी बढ़ता जाता है। इस प्रकार रोग और दवाएँ साथ-साथ बढ़ते चले जाते हैं और रोगी हमेशा के लिए उनके चंगुल में फँस जाता है। ‘मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की’ यह कहावत ऐसे ही अनुभवों से बनी है।

अंग्रेजी दवाओं के पार्श्व प्रभाव (साइड इफैक्ट) से सभी परिचित हैं। दवाओं की शीशियों और डिब्बों पर अनिवार्य रूप से यह लिखा होता है कि इस दवा के क्या-क्या दुष्प्रभाव हो सकते हैं। सभी ऐलोपैथिक दवाएँ रासायनिक पदार्थों से बनी होती हैं। हमारा शरीर उन्हें स्वीकार करने को राजी नहीं होता, इसलिए उन्हें बाहर निकालने में जुट जाता है। यही कारण है कि ऐलोपैथिक दवाएँ खाने वाले व्यक्ति के मल-मूत्र का रंग तुरन्त बदल जाता है और उनमें बहुत बदबू भी आती है। रोगी के शरीर की बहुत सी शक्ति इन दवाओं से लड़ने और बाहर निकालने में खर्च हो जाती है, जिसके कारण उसकी जीवनीशक्ति कम हो जाती है। इससे शरीर रोगों से लड़ने में अक्षम हो जाता है और नये-नये रोगों का घर बन जाता है। लेख- डॉ विजय कुमार सिंघल
प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य 

किस रोग में कौन सा आसन करे ?

Image result for asanasकिस रोग में कौन सा आसन करे ?
👉🏻 पेट की बिमारियों में- उत्तानपादासन, पवनमुक्तासन, वज्रासन, योगमुद्रासन, भुजंगासन, मत्स्यासन।
👉🏻 सिर की बिमारियों में- सर्वांगासन, शीर्षासन, चन्द्रासन।
👉🏻 मधुमेह- पश्चिमोत्तानासन, नौकासन, वज्रासन, भुजंगासन, हलासन, शीर्षासन।
👉🏻 वीर्यदोष– सर्वांगासन, वज्रासन, योगमुद्रा।
👉🏻 गला- सुप्तवज्रासन, भुजंगासन, चन्द्रासन।
👉🏻 आंखें- सर्वांगासन, शीर्षासन, भुजंगासन।
👉🏻 गठिया– पवनमुक्तासन, पद्ïमासन, सुप्तवज्रासन, मत्स्यासन, उष्ट्रासन।
👉🏻 नाभि- धनुरासन, नाभि-आसन, भुजंगासन।
👉🏻 गर्भाशय– उत्तानपादासन, भुजंगासन, सर्वांगासन, ताड़ासन, चन्द्रानमस्कारासन।
👉🏻 कमर दर्द – हलासन, चक्रासन, धनुरासन, भुजंगासन।
👉🏻 फेफड़े- वज्रासन, मत्स्यासन, सर्वांगासन।
👉🏻 यकृत- लतासन, पवनमुक्तासन, यानासन।
👉🏻 गुदा,बवासीर,भंगदर आदि में- उत्तानपादासन, सर्वांगासन, जानुशिरासन, यानासन।
👉🏻 दमा- सुप्तवज्रासन, मत्स्यासन, भुजंगासन।
👉🏻 अनिद्रा- शीर्षासन, सर्वांगासन, हलासन, योगमुद्रासन।
👉🏻 गैस– पवनमुक्तासन, जानुशिरासन, योगमुद्रा, वज्रासन।
👉🏻 जुकाम– सर्वांगासन, हलासन, शीर्षासन।
👉🏻 मानसिक शांति के लिए– सिद्धासन, योगासन, शतुरमुर्गासन, खगासन योगमुद्रासन।
👉🏻 रीढ़ की हड्डी के लिए- सर्पासन, पवनमुक्तासन, सर्वांगासन, शतुरमुर्गासन करें।
👉🏻 गठिया के लिए- पवनमुक्तासन, साइकिल संचालन, ताड़ासन किया करें।
👉🏻 गुर्दे की बीमारी में– सर्वांगासन, हलासन, वज्रासन, पवनमुक्तासन करें।
👉🏻 गले के लिए- सर्पासन, सर्वांगासन, हलासन, योगमुद्रा करें।
👉🏻 हृदय रोग के लिए- शवासन, साइकिल संचालन, सिद्धासन किया करें।
👉🏻 दमा के लिए- सुप्तवज्रासन, सर्पासन, सर्वांगासन, पवनतुक्तासन, उष्ट्रासन करें।
👉🏻 रक्तचाप के लिए– योगमुद्रासन, सिद्धासन, शवासन, शक्तिसंचालन क्रिया करें।
👉🏻 सिर दर्द के लिए- सर्वांगासन, सर्पासन, वज्रासन, धनुरासन, शतुरमुर्गासन करें।
👉🏻 पाचन शक्ति बढ़ाने के लिए- यानासन, नाभि आसन, सर्वांगासन, वज्रासन करें।
👉🏻 मधुमेह के लिए- मत्स्यासन, सुप्तवज्रासन, योगमुद्रासन, हलासन, सर्वांगासन, उत्तानपादासन करें।
👉🏻 मोटापा घटाने के लिए– पवनमुक्तासन, सर्वांगासन, सर्पासन, वज्रासन, नाभि आसन करें।
👉🏻 आंखों के लिए- सर्वांगासन, सर्पासन, वज्रासन, धनुरासन, चक्रासन करें।
👉🏻 बालों के लिए– सर्वांगासन, सर्पासन, शतुरमुर्गासन, वज्रासन करें।
👉🏻 प्लीहा के लिए- सर्वांगासन, हलासन, नाभि आसन, यानासन करें।
👉🏻 कमर के लिए– सर्पासन, पवनमुक्तासन, सर्वांगासन, वज्रासन, योगमुद्रासन करें।
👉🏻 कद बड़ा करने के लिए- ताड़ासन, शक्ति संचालन, धनुरासन, चक्रासन, नाभि आसन करें।
👉🏻 कानों के लिए– सर्वांगासन, सर्पासन, धनुरासन, चक्रासन करें।
👉🏻 नींद के लिए– सर्वांगासन, सर्पासन, सुप्तवज्रासन, योगमुद्रासन, नाभि आसन करें।
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NDDY 1ST YR 1.01 प्राकृतिक चिकित्सा परिभाषा एवं सिद्धान्त

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