Search This Blog

स्त्री रोग

स्त्री-रोग विज्ञान

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
Jump to navigationJump to search
स्त्रीरोगविज्ञान (Gynaccology), चिकित्साविज्ञान की वह शाखा है जो केवल स्त्रियों से संबंधित विशेष रोगों, अर्थात् उनके विशेष रचना अंगों से संबंधित रोगों एवं उनकी चिकित्सा विषय का समावेश करती है। स्त्री-रोग विज्ञान, एक महिला की प्रजनन प्रणाली (गर्भाशययोनि और अंडाशय) के स्वास्थ्य हेतु अर्जित की गयी शल्यक (सर्जिकल) विशेषज्ञता को संदर्भित करता है। मूलतः यह 'महिलाओं की विज्ञान' का है। आजकल लगभग सभी आधुनिक स्त्री-रोग विशेषज्ञ, प्रसूति विशेषज्ञ भी होते हैं।

परिचय[संपादित करें]


स्त्री जननांगों के परीक्षण से सम्बन्धित ऐतिहासिक 'तोबा' का सुन्दर चित्रण
स्त्री के प्रजननांगों को दो वर्ग में विभाजित किया जा सकता है (1) बाह्य और (2) आंतरिक। बाह्य प्रजननांगों में भग (Vulva) तथा योनि (Vagina) का अंतर्भाव होता है।
प्रजननांगों में से अधिकतम की अभिवृद्धि म्यूलरी वाहिनी (Mullerian duct) से होती है। म्यूलरी वाहिनी भ्रूण की उदर गुहा एवं श्रोणिगुहाभित्ति के पश्चपार्श्वीय भाग में ऊपर से नीचे की ओर गुजरती है तथा इनमें मध्यवर्ती, वुल्फियन पिंड एवं नलिकाएँ होती हैं, जिनके युवास्त्री में अवशेष मिलते हैं।
वुल्फियन नलिकाओं से अंदर की ओर दो उपकला ऊतकों से निर्मित रेखाएँ प्रकट होती हैं यही प्राथमिक जनन रेखा है जिससे भविष्य में डिंबग्रंथियों का निर्माण होता है।

प्रजननांग संस्थान का शरीरक्रियाविज्ञान[संपादित करें]

एक स्त्री की प्रजनन आयु अर्थात् यौवनागमन से रजोनिवृत्ति तक, लगभग 30 वर्ष होती है। इस संस्थान की क्रियाओं का अध्ययन करने में हमें विशेषत: दो प्रक्रियाओं पर विशेष ध्यान देना होता है :
(क) बीजोत्पत्ति तथा (ख) मासिक रज:स्रवण।
बीजोत्पत्ति का अधिक संबंध बीजग्रंथियों से है तथा रज:स्रवण का अधिक संबंध गर्भाशय से है परंतु दोनों कार्य एक दूसरे से संबंद्ध तथा एक दूसरे पर पूर्ण निर्भर करते हैं। बीजग्रंथि (डिंबग्रंथि) का मुख्य कार्य है, ऐसे बीज की उत्पत्ति करना है जो पूर्ण कार्यक्षम तथा गर्भाधान योग्य हों। बीजग्रंथि स्त्री के मानसिक और शारीरिक अभिवृधि के लिए पूर्णतया उत्तरदायी होती है तथा गर्भाशय एवं अन्य जननांगों की प्राकृतिक वृद्धि एवं कार्यक्षमता के लिए भी उत्तरदायी होती है।
बीजोत्पत्ति का पूरा प्रक्रम शरीर की कई हारमोन ग्रंथियों से नियंत्रित रहता है तथा उनके हारमोन (Harmone) प्रकृति एवं क्रिया पर निर्भर करते हैं। अग्रयीयूष ग्रंथि को नियंत्रक कहा जाता है।
गर्भाशय से प्रति 28 दिन पर होनेवाले श्लेष्मा एवं रक्तस्राव को मासिक रज:स्राव कहते हैं। यह रज:स्राव यौवनागमन से रजोनिवृत्ति तक प्रति मास होता है। केवल गर्भावस्था में नहीं होता है तथा प्राय: घात्री अवस्था में भी नहीं होता है। प्रथम रज:स्राव को रजोदय अथवा (menarche) कहते हैं तथा इसके होने पर यह माना जाता है कि अब कन्या गर्भधारण योग्य हो गई है तथा यह प्राय: यौवनागमन के समय अर्थात् 13 से 15 वर्ष के वय में होता है। पैंतालीस से पचास वर्ष के वय में रज:स्राव एकाएक अथवा धीरे-धीरे बंद हो जाता है। इसे ही रजोनिवृत्ति कहते हैं। ये दोनों समय स्त्री के जीवन के परिवर्तनकाल हैं।
प्राकृतिक रज:चक्र प्राय: 28 दिन का होता है तथा रज:दर्शन के प्रथम दिन से गिना जाता है। यह एक रज:स्राव काल से दूसरे रज:स्राव काल तक का समय है। रज:चक्र के काल में गर्भाशय अंत:कला में जो परिवर्तन होते हैं उन्हें चार अवस्थाओं में विभाजित कर सकते हैं (1) वृद्धिकाल, (2) गर्भाधान पूर्वकाल, (3) रज: स्रावकाल तथा (4) पुनर्निर्माणकाल
(1) वृद्धिकाल : रज:स्राव के समाप्त होने पर गर्भाशय कला के पुन: निर्मित हो जाने पर यह गर्भाशयकला वृद्धिकाल प्रारंभ होता है तथा अंडोत्सर्ग (ovulation) तक रहता है। अंडोत्सर्ग (जीवग्रथि से अंडोत्सर्ग) मासिक रज:स्राव के प्रारंभ होने के पंद्रहवें दिन होती है। इस काल में गर्भाशय अंत:कला धीरे धीरे मोटी होती जाती है तथा डिंबग्रंथि में डिंबनिर्माण प्रारंभ हो जाता है। डिंबग्रंथि के अंत:स्राव ओस्ट्रोजेन की मात्रा बढ़ती है क्योंकि ग्रेफियन फालिकल वृद्धि करता है। गर्भाशय अंत:कला ओस्ट्रोजेन के प्रभाव में इस काल में 4-5 मिमी तक मोटी हो जाती है।
(2) गर्भाधान पूर्वकाल : इस अवस्था के पश्चात् स्राविक या गर्भाधान पूर्वकाल प्रारंभ होता है तथा 15 दिन तक रहता है अर्थात् रज:स्राव प्रारंभ होने तक रहता है। रज:स्राव के पंद्रहवें दिन डिंबग्रंथि से अंडोत्सर्ग (ovulation) होने पर पीत पिंड (Corpus Luteum) बनता है तथा इसके द्वारा मिर्मित स्रावों (प्रोजेस्ट्रान) तथा ओस्ट्रोजेन के प्रभाव के अंतर्गत गर्भाशय अंत:कला में परिवर्तन होते रहते हैं। यह गर्भाशय अंत:कला अंततोगत्वा पतनिका (decidua) में परिवर्तित होती है जो कि गर्भावस्था की अंत:कला कही जाती है। ये परिवर्तन इस रज:चक्र के 28 दिन तक पूरे हो जाते हैं तथा रज:स्राव होने से पूर्व मर्भाशय अंत:कला की मोटाई 6.7 मिमी होती है।
(3) रज: स्रावकाल: रज:स्रावकाल 4-5 दिन का होता है। इसमें गर्भाशय अंत:कला की बाहरी सतह टूटती है और रक्त एवं श्लेष्मा का स्राव होता है। जब रज:स्रावपूर्व होनेवाले परिवर्तन पूरे हो चुकते हैं तब गर्भाशय अंत:कला का अपजनन प्रारंभ होता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस अंत:कला का बाह्य स्तर तथा मध्य स्तर ही इन अंत:स्रावों से प्रभावित होते हैं तथा गहन स्तर या अंत:स्तर अप्राभावित रहते हैं। इस तरह से रज:स्राव में रक्त, श्लेष्मा इपीथीलियम कोशिकाएँ तथा स्ट्रोमा (stroma) केशिकाएँ रहती हैं। यह रक्त जमता नहीं है। रक्त की मात्रा 4 से 8 औंस तक प्राकृतिक मानी जाती है।
(4) पुनर्निर्माणकाल : पुन: जनन या निर्माण का कार्य तब प्रारंभ होता है जब रज:स्रवण की प्रक्रिया द्वारा गर्भाशय अंत:कला का अप्रजनन होकर उसकी मोटाई घट जाती है। पुन: जनन अंत:कला के गंभीर स्तर से प्रारंभ होता है तथा अंत:कला वृद्धिकाल के समान दिखाई देता है।

रज:स्राव के विकार[संपादित करें]

(१) अडिंभी (anouhlar) रज:स्राव - इस विकार में स्वाभाविक रज:स्राव होता रहता है, परंतु स्त्री बंध्या होती है।
(२) रुद्धार्तव (Amehoryboea) स्त्री के प्रजननकाल अर्थात् यौवनागमन (Puberty) से रजोनिवृत्ति तक के समय में रज:स्राव का अभाव होने को रुद्धार्तव कहते हैं। यह प्राथमिक एवं द्वितीयक दो प्रकार का होता है। प्राथमिक रुद्धार्तव में प्रारंभ से ही रुद्धार्तव रहता है जैसे गर्भाशय की अनुपस्थिति में होता है। द्वितीयक में एक बार रज:स्राव होने के पश्चात् किसी विकार के कारण बंद होता है। इसका वर्गीकरण प्राकृतिक एवं वैकारिक भी किया जाता है। गर्भिणी, प्रसूता, स्तन्यकाल तथा यौवनागमन के पूर्व तथा रजो:निवृत्ति के पश्चात् पाया जानेवाला रुद्धार्तव प्राकृतिक होता है। गर्भधारण का सर्वप्रथम लक्षण रुद्धार्तव है।
(३) हीनार्तव (Hypomenorrhoea) तथा स्वल्पार्तव (oligomenorrhoea) - हीनार्तव में मासिक (menstrual cycle) रज:चक्र का समय बढ़ जाता है तथा अनियमित हो जाता है। स्वल्पार्तव में रज:स्राव का काल तथा उसकी मात्रा कम हो जाती है।
(४) ऋतुकालीन अत्यार्तव - (Menorrhagia) रज:स्राव के काल में अत्यधिक मात्रा में रज:स्राव होना।
(५) अऋतुकाली अत्यार्तव (Metrorrhagia) दो रज:स्रावकाल के बीच बीच में रक्त:स्राव का होना।
(६) कष्टार्तव - (Dysmenorrhoea) इसमें अतिस्राव के साथ वेदना बहुत होती है।
(७) श्वेत प्रदर (Leucorrhoea) - योनि से श्वेत या पीत श्वेत स्राव के आने को कहते हैं। इसमें रक्त या पूय या पूय नहीं होना चाहिए।
(८) बहुलार्तव (Polymenorrhoea) - इसमें रज:चक्र 28 दिन की जगह कम समय में होता है जैसे 21 दिन का अर्थात् स्त्री को रज:स्राव शीघ्र शीघ्र होने लगता है। अंडोत्सर्ग (ovulation) भी शीघ्र होने लगता है।
(९) वैकारिक आर्तव (Metropathia Haemorrhagica) - यह एक अनियमित, अत्यधिक रज:स्राव की स्थिति होती है।
(१०) कानीय रजोदर्शन - निश्चित वय या काल से पूर्व ही रजस्राव के होने को कहते हैं तथा इसी प्रकार के यौवनागमन को कानीय यौवनागमन कहते हैं।
(११) अप्राकृतिक आर्तव क्षय - निश्चित वय या काल से बहुत पूर्व तथा आर्तव विकार के साथ आर्तव क्षय को कहते हैं। प्राकृतिक क्षय चक्र की अवधि बढ़कर या मात्रा कम होकर धीरे धीरे होता है।

प्रजननांगों के सहज विकार[संपादित करें]

(1) बीजग्रंथियाँ - ग्रंथियों की रुद्ध वृद्धि (Hypoplasea) पूर्ण अभाव आदि विकार बहुत कम उपलब्ध होते हैं। कभी-कभी अंडग्रंथि तथा बीजग्रंथि सम्मिलित उपस्थित रहती है तथा उसे अंडवृषण (ovotesties) कहते हैं।
(2) बीजवाहिनियाँ - इनका पूर्ण अभाव, आंशिक वृद्धि, तथा इनका अंधवर्ध (diverticulum) आदि विकार पाए जाते हैं।
(3) गर्भाशय - इस अंग का पूर्ण अभाव कदाचित् ही होता है
  • गर्भाशय में दो शृंग, एवं दो ग्रीवा होती है तथा दो योनि होती हैं अर्थात् दोनों म्यूलरी वाहिनी परस्पर विगल-विगल रहकर वृद्धि करती है। इसे डाइडेलफिस (didelphys) गर्भाशय कहते हैं।
  • इस तरह वह अवस्था जिसमें म्यूलरी वाहिनियाँ परस्पर विलग रहती हैं परंतु ग्रीवा योनिसंधि पर संयोजक ऊतक द्वारा संयुक्त होती है उसे कूट डाइडेल फिस कहते हैं।
  • कभी गर्भाशय में दो शृंग होते हैं जो एक गर्भाशय ग्रीवा में खुलते हैं।
  • कभी गर्भाशय स्वाभाविक दिखाई देता है परंतु उसकी तथा ग्रीवा की गुहा, पट द्वारा विभाजित रहती है। यह पट पूर्ण तथा अपूर्ण हो सकता है।
  • कभी कभी छोटी छोटी अस्वाभाविकताएँ गर्भाशय में पाई जाती हैं जैसे शृंग का एक ओर झुकना, गर्भाशय का पिचका होना आदि।
  • शैशविक आकार आयतन का गर्भाशय युवावस्था में पाया जाता है क्योंकि जन्म के समय से ही उसकी वृद्धि रुक जाती है।
  • अल्पविकसित गर्भाशय में गर्भाशय शरीर छोटा तथा ग्रेवेय ग्रीवा लंबी होती है।
(4) गर्भाशय ग्रीवा - (क) ग्रीवा के बाह्य एवं अंत:मुख का बंद होना। (ख) योनिगत ग्रीवा का सहज अतिलंब होना एवं भग तक पहुँचना।
(5) योनि - योनि कदाचित् ही पूर्ण लुप्त होती है। योनिछिद्र का लोप पूर्ण अथवा अपूर्ण, पट द्वारा योनि का लंबाई में विभाजन आदि प्राय: मिलते हैं।
(6) इसमें अत्यधिक पाए जानेवाले सहज विकारों में योनिच्छद का पूर्ण अछिद्रित होना या चलनी रूप छिद्रित होना होता है।

जननांगों के आघातज विकार एवं अगविस्थापन[संपादित करें]

(1) मूलाधार (Perineaum) तथा भग के विकार - साधारणतया प्रसव में इनमें विदर हो जाती है तथा कभी कभी प्रथम संयोग से, आघात से तथा कंडु से भी विदरव्रण बन जाते हैं।
(2) योनि के विकार - गिरने से, प्रथम संभोग से, प्रसव से, यंत्रप्रवेश से, पेसेरी से तथा योनिभित्तिसर्स से ये आघातज विकार होते हैं। इसी तरह प्रसव से योनि गुदा तथा मूत्राशय योनि भगंदर उत्पन्न होते हैं।
(3) गर्भाशय ग्रीवा विकार - ग्रीवाविदर प्राय: प्रसव से उत्पन्न होता है।
(4) गर्भाशय एवं सह अंगों के विकार - प्राय: ये विकार कम होते हैं। गर्भाशय में छिद्र शल्यकर्म अथवा गर्भपात में यंत्रप्रयोग से होता है।
(5) गर्भाशय का विस्थापन (displacement)
  • गर्भाशय का अति अग्रनमन (anteversion) होना अथवा पश्चनति (Retroversion) होना।
  • योनि के अक्ष से गर्भाशय अक्ष के संबंध का विकृत होना अर्थात् दोनों अक्षों का एक रेखा में होना अथवा प्रत्यग्वक्र (Retroflexion) होना।
  • श्रोणिगुहा में गर्भाशय की स्थिति की जो प्राकृत सतह है उससे ऊपर या नीचे स्थित होना या भ्रंश (Prolapse) होना।
  • गर्भाशय भित्तियों का उसकी गुहा में लटकना या विपर्यय (Inversion) होना।

प्रजननांगों के उपसर्ग (Infections)[संपादित करें]

प्रजनांगों में कवक (fungal), जीवाणु (bacterial), विषाणु (viral) या प्रोटोजोवा (protozoal) के कारण इन्फेक्शन हो सकता है।

भग के उपसर्ग[संपादित करें]

(1) भग के विशिष्ट उपसर्ग - तीव्र भगशोथ, बार्थोलियन ग्रंथिशोथ गोनॉरिया में होते हैं। डुक्रे के जीवाणुओं द्वारा भग में मृदुव्रण उत्पन्न होता है। इसी प्रकार के यक्ष्मा एवं फिरंगज व्रण भी भग पर पाए जाते हैं।
(2) द्वैतीयिक भगशोथ - मधुमेह, पूयमेह, मूत्रस्राव कृमि एवं अर्श आदि में व्रण उत्पन्न होते हैं जिनसे यह शोथ होता है।
(3) प्राथमिक त्वक्विकार - पिडिकाएँ, हरपिस आदि त्वक्विकार भगत्वक् में भी होता है।
(4) विशिष्ट प्रकार के भगशोथ -
  • भग परिगलन (gangrene) यह मीसल्स, प्रसूतिज्वर अथवा रतिजन्य रोगों में होता है।
  • केचेट का लक्षण - यह मासिक स्रव पूर्व दिनों में होता है। इसमें मुखपाक, नेत्र-श्लेष्मा-शोथ सहलक्षण रूप में होता है।
  • अप्थस भगशोथ (apthous) इसमें भग का थ्रस (Thrush) रूपी उपसर्ग होता है।
  • दूरी सेपलास भग - रक्त लाई स्ट्रेप्टोकोकस के उपसर्ग से भगशोथ होता है।
  • भग योनिशोथ (बालिकाओं में) - यह स्वच्छता के अभाव में अस्वच्छ तौलियों के प्रयोग से होनेवाले गोनोकोकस उपसर्ग से तथा मैथुनप्रयत्न से होता है।
(5) भग के चिरकालिक विशेष रोग -
  • भग का ल्युकोप्लेकिआ (leucoplakia) - भग त्वचा का यह एक विशेष शोथ रजोनिवृत्ति के पश्चात् हो सकता है।
  • क्राराउसिस (krarausis) भग - बीजग्रंथियों की अकर्मण्यता होने पर यह भगशोष उत्पन्न होता है।

योनि के उपसर्ग[संपादित करें]

यों तो कोई भी जीवाणु या वाइरस का उपसर्ग योनि में हो सकता है तथा योनिशोथ पैदा हो सकता है परंतु बीकोलाई, डिप्थेराइड, स्टेफिलोकोकस, स्ट्रप्टोकोकस, ट्रिकनामस मोनिला (श्वेत) का उपसर्ग अधिकतर होता है।
(1) बालयोनिशोथ - इसमें उपसर्ग के साथ साथ अंत:स्राविक कारक भी सहयोगी होता है।
(2) द्वितीयक योनिशोथ - पेसेरी के आघात, तीव्र पूतिरोधक द्रव्यों से योनिप्रक्षालन, गर्भनिरोधक रसायन, गर्भाशय ग्रीवा से चिरकालिक औपसर्गिक स्राव आदि के पश्चात् होनेवाले योनिशोथ।
(3) प्रसवपश्चात् योनिशोथ - कठिन प्रसवजन्य विदार इत्यादि तथा आस्ट्रोजेन के प्रभाव को कुछ समय के लिए हटा लेने से बीजोत्सर्ग न होने से होता है।
(4) वृद्धत्वजन्य योनिशोथ - यह केवल वृद्धयोनि का शोथ है।

गर्भाशय के उपसर्ग[संपादित करें]

यह ऊर्ध्वगामी तथा अध:गामी दोनों प्रकार का होता है। प्रसवगर्भपातगोनोरियागर्भाशयभ्रंशयक्ष्माअर्बुदग्रीवा का विस्फोट आदि के पश्चात् प्राय: उपद्रव रूप उपसर्ग होता है।
गर्भाशयशोथ - आधारीय स्तर में चिरकालिक शोथ से परिवर्तन होते हैं परंतु प्राय: इनके साथ गर्भाशय पेशी में भी ये चिरकालिक शोथपरिवर्तन होते हैं। यह शोथ तीव्र, अनुतीव्र चिरकालिक वर्ग में तथा यक्ष्मज और वृद्धताजन्य में विभाजित होता है।

बीजवाहिनियों तथा बीजग्रंथियों के उपसर्ग[संपादित करें]

बीजवाहिनी बीजग्रंथि शोथ - इसके अंतर्गत बीजवाहिनी बीजग्रंथि तथा श्रोणिकला के जीवाणुओं द्वारा होनेवाले उपसर्ग आते हैं। यह उपसर्ग प्राय: नीचे योनि से ऊपर जाता है परंतु यक्ष्मज बीजवाहिनी शोथ प्राय: श्रोणिकला से प्रारंभ होता है अथवा रक्त द्वारा लाया जाता है।

प्रजनन अंगों के अर्बुद (tumours)[संपादित करें]

इसके अंतर्गत नियोप्लास्म (neoplasm) के अलावा अन्य अर्बुद भी वर्णित किए जाते हैं।

भगयोनि के अर्बुद[संपादित करें]

(क) भग के अर्बुद -
(अ) भगशिश्न की अतिपुष्टि - यह प्राय: सहज होती है। हस्तमैथुन, बीजग्रंथि अर्बुद, चिरकालिक उपसर्ग तथा अधिवृक्क ग्रंथि के रोगों में यह रोग उपद्रव स्वरूप होता है।
(आ) लघु भगोष्ठ की अतिपुष्टि - यह प्राय: सहज होती है परंतु चिरकालिक उत्तेजनाओं से भी होती है।
(इ) पुटियुक्त शोथ (cystic swelling) - इसके अंतर्गत (1) बार्थोलियन पुटी, (2) नक (nuck) नलिका हाइड्रोपील, (3) इंडोमेट्रियोमाटा तथा (4) भगोष्ठों के एवं भगशिश्निका के सिस् आते हैं।
(ई) रक्तवाहिकामय शोथ - भग की शिराओं का फूलना तथा भग में रक्तसंग्रह (haematoma) आदि साधारणतया मिलता है।
(उ) वास्तविक अर्बुद -
(1) अघातक -
  • फ्राइब्रोमाटा (छोटा, कड़ा तथा पीड़ारहित)
  • पेपिलोमाटा (प्राय: अकेला वटि के समान होता है)
  • लापोमाटा (अध:त्वक् में प्रारंभ होता है।)
  • हाइड्रेडिनोमा (स्वेदग्रंथि का अर्बुद)
(2) घातक -
  • करसिनोमा भग,
  • एडिनो कारसिनोमा (बार्थोलियन ग्रंथि से प्रारंभ होता है)।
(3) विशिष्ट -
  • वेसल कोशिका कार्सिनोमा (रोडांडवृण)
  • इपीथीलियल अंत:कारसिनोमा
  • बी एन का रोग
  • घातक मेलिनोमा
  • पेगेट का रोग
  • सारकोमा
  • द्वितीयक कोरियन इपिथोलियमा
(ख) योनि के अर्बुद -
(अ) गार्टनर नलिका का सिस्ट
(आ) इनक्लूजन सिस्ट (शल्यकर्म के द्वारा इपीथीलियम को अंत:प्रविष्ट करने से बनता है)।
(इ) वास्तविक अर्बुद -
  • अघातक -
  • (क) पाइब्रोमा (गोल, कठिन, चल)
  • (ख) पेपिलोमाटा
  • घातक -
  • (क) कार्सिनोमा (प्राथमिक, द्वितीयक)
  • (ख) सारकोमा

गर्भाशय के अर्बुद[संपादित करें]

गर्भाशय के अघतक अर्बुद पेशी से या अंत:कला से उत्पन्न होते हैं अथवा गर्भाशय तंतु पेशी से उत्पन्न होते हैं।
(अ) फाइब्रोमायोमाटा - ये अचल, धीरे-धीरे बढ़नेवाले तथा गर्भाशय पेशी में स्थित आवरण से युक्त होते हैं। ये गर्भाशयशरीर में प्राय: होते हैं, कभी कभी अर्बुद गर्भाशयग्रीवा में भी पाए जाते हैं। गर्भाशय में तीन प्रकार के होते हैं-
(क) पेरीटोनियम के नीचे (ख) पेशी के अंतर्गत और (ग) अंत:कला के नीचे।
(आ) गर्भाशय पालिपस - ये अधिकतर पाए जाते हैं। ग्रीवा एवं शरीर दोनों में होते हैं।
शरीर में : एडिनोमेटस, फाइब्राइड, अपरा के कार्सिनोमा एवं सार्कोनाम। ग्रीवा में-अत:कला के फाइब्राइड, कार्सिनोमा, सार्कोमा, गर्भाशय के घातक अर्बुद, इपीथीलियल कोशिकाओं से उत्पन्न होते हैं। अत: कार्सिनोमा तथा सारकोमा से अधिक पाए जाते हैं।

बीजग्रंथि के अर्बुद[संपादित करें]

इनमें होनेवाली पुटि (सिस्ट) तथा अर्बुद का वर्गीकरण करना कठिन होता है क्योंकि उन कोशिकाओं का जिनसे ये उत्पन्न होते हैं विनिश्चय करना कठिन होता है।
(अ) फालिक्यूलर सिस्टम के सिस्ट - फालिक्यूलर सिस्ट, पीतपिंड सिस्ट, थीकाल्यूटीन सिस्ट।
(आ) इपीथीलयम अर्बुद
घातक
    • साधारण सीरस
    • पेपेलरी सिरस सिस्ट एडिनोमा
    • कूट म्यूसीन सिस्ट एडिनोमा
    • गर्भाशयिक विस्तृत स्नायु बीजग्रंथि सिस्ट
अघातक
    • कार्सिनोमा प्राथमिक
    • कार्सिनोमा द्वितीयक

अन्य रोगवर्ग[संपादित करें]

(1) इंडोमेट्रोसिस (endometrosis) इस विकार का मुख्य कारण यह है कि इंडोमेट्रियल ऊतक अपने स्थान के अलावा अन्य स्थानों पर उपस्थित है।
(2) इनके अतिरिक्त अन्य रोग जैसे वंध्यत्वकष्ट मैथुननपुंसकतायौनापकर्ष आदि नाना रोगों का वर्णन तथा चिकित्सा का वर्णन इस शास्त्र में करते हैं।

स्त्री-रोग विशेषज्ञ[संपादित करें]

स्त्री-रोग की चिकित्सा करने वाले चिकित्सक को स्त्री-रोग विशेषज्ञ कहते हैं। भारत में स्त्री-रोग विशेषज्ञ बनने के लिए स्त्री-रोग विषय में एम.डी. की डिग्री लेना अनिवार्य है।

NDDY 1ST YR 1.09 आधुनिक चिकित्सा विकास क्रम

वर्तमान काल में चिकित्सा का विकास Evolution of Allopathy in Modern Times

17वीं शताब्दी में ही अंग्रेज वैज्ञानिक विलियम हार्वे (William Harvey) (1578-1647 ई.) ने हृदय पर व्याख्या की। माइक्रोस्कोप का प्रयोग भू्रणविज्ञान और जीवन के विकास में भी किया गया तथा रक्त के लाल और श्वेत रुधिककणिकाओं के बारे में भी ल्यूवेन हाॅक (Antonie van Leeuwenhoek), जिनको कि फाॅदर आॅफ माइक्रोबाइलोजी (Father of Microbiology) भी कहा जाता है, ने माइक्रोस्कोप के आधार पर चित्र बनाकर दर्शाया। प्रत्येक अंगों के सूक्ष्म विवेचन से वैज्ञानिकों की ढेर सारी भ्रान्तियां दूर की।
17वीं शताब्दी के मध्य में स्टीफेन होल्स (1677-1761 ई.) जब रक्त की श्यामता का अध्ययन करते समय घोड़े के गले की रक्तवाहिनी का अध्ययन कर रहे थे, तब रक्त के प्रवाह से चमत्कृत होकर उन्होंने रक्तचाप नापने का यंत्र बनाया।
सन् 1755 ई. में जर्मनी में सैमुअल फ्रेडरिख क्रिस्टियान हैनीमैन (Christian Friedrich Samuel Hahnemann) का जन्म हुआ। वह जब कुनैन के बारे में अध्ययन कर रहे थे तभी उन्हें एक नयी दृष्टि मिली। कुनैन खाने से जाड़ा देकर बुखार आता है और यही जड़ैया बुखार अच्छा भी करता है। उन्होने सिद्धान्त स्थापित किया कि बड़ी मात्रा में रोग जैसे स्थिति पैदा करने वाली औषधि, अल्पमात्रा मे उस रोग को दूर करती है। सन् 1811 ई. में उन्होने ‘आर्गेनन’ लिखा। उन्होंने अपनी पद्धति का नाम दिया ‘होमियोपैथी’। इस पद्धति में उसे यह भी स्थापित किया कि ‘औषधि की मात्रा घोल में ज्यों-ज्यों कम होती है, त्यों-त्यों उसकी रोगहारी शक्ति बढती जाती है।’ हैनिमैन ने अपनी पद्धति से अलग जो पद्धतियाँ थी, उन्हें ‘ऍलोपैथी Allopathy नाम दिया। हैनीमैन ने दो उपकार किये-एक तो उसने औषधि विज्ञान के गहन अध्ययन पर बल दिया, अतः उसे ‘फादर आफ माडर्न फार्मोकोलाॅॅजी’ कहा जाता है, दूसरे उस युग के चिकित्सक बड़ी मात्रा में कई औषधियाँ मिलाकर काढा तथा गोलियां खिलात थे। जो रोगी प्रकृति की सहायता से अच्छे भी हो सकते थे, वे इस बर्बर चिकित्सा के कारण मर जाते थे। सूक्ष्म मात्रा में औषधी देकर हैनीमैन ने इनकी रक्षा की।
इस काल में पूरे यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति हो रही थी। संक्रामक रोगों को नियन्त्रित करने के नियम बने। 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ में सूक्ष्मदर्शी यंत्रों की उपलब्धता ने सूक्ष्मजीवों एवं बैक्टीरिया तथा एक कोशीय जीव (प्रोटोजोआ) को स्थापित कर लिया। रूस के वैज्ञानिक पैवलाॅव (1848-1936 ई.) ने पेट के स्त्राव का सम्बन्ध दृष्टि, घ्राण एवं श्रवण से स्थापित किया, जो बाद में चलकर नोबल पुरस्कार से सम्मानित हुए।
इस समय यद्यपि शल्य-क्रिया की महत्ता चिकित्सा क्षेत्र में पर्याप्त फैल चुकी थी, परंतु अधिकांशतः शल्य-क्रिया पीड़ा एवं चीत्कार में होती थी। 1884 ई. में जेम्स कार्निक स्टुअर्ड हाल्स्टेड ने कोकेन को सुई के द्वारा नसों में लगा कर संज्ञा-शून्यता पैदा किया और 1874 ई. मे क्लोरल हाइड्रेट को नसों में लगाकर सूई द्वारा निश्चेतना पैदा करने की विधि निकाली गयी, जो कि 1903 ई. के बाद बिचुरटेस की खोज के बाद और प्रभावी हो गयी।
जोसेफ लिस्टर श्रवेमची स्पेजमत (1827-1912 ई.) ने यद्यपि अपने जीवन का प्रारम्भ एक शल्य चिकित्सक के रूप में किया, तथापि उनकी प्रसिद्धि एण्टीसेप्टिक की खोज के कारण हुई। उन्होंने विषाणुओं से मुक्ति पाने के लिये कार्बोलिक एसिड से घाव धोने की परम्परा शुरू की तथा चिकित्सा के पूर्व यंत्रों को इससे धोया जाने लगा। कार्बोलिक एसिड से अंगों में कई बार घाव हो जाते थे, अतः हाथों में रबड़ के दस्ताने पहनने की भी कला इसी काल में प्रचलित हुई।
एटिसोप्सिस, अंग को शुन्न करने की कला और विषाणुओं (बैक्टीरिया और वायरस) के ज्ञान ने आधुनिक चिकित्सा Allopathy को सहज बना दिया। इस तरह आधुनिक चिकित्सा विज्ञान निरन्तर देश काल और समय के सापेक्ष प्रयोगों पर हर बार परखा जाता रहा और तब कहीं जाकर ‘सर्वे सन्तु निरामयाः’ के उद्देश्य की पूर्ति कर पाया। यह सारे देशों की धरोहर है, समूची मानवता का इसमें बराबर योगदान है और सबने इसको अपने-अपने ज्ञान से सींचकर वैश्वीकरण के इस शीर्ष पर लाकर खड़ा कर दिया।

आपको यह लेख आधुनिक चिकित्सा पद्धति का विकासक्रम Evolution of Modern Medical Practices (Allopathy) in Hindi  कैसा लगा, कृप्या कमेंट बाक्स पर साझा करें। अगर आपके पास विषय से जुडी और कोई जानकारी है तो हमे kadamtaal@gmail.com पर मेल कर सकते है |

आधुनिक-प्राचीन हर्बल

आधुनिक व परंपरागत औषधि ज्ञान में ज्यादा असरदार क्या? विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रपट के अनुसार विकासशील देशों के 80 से अधिक प्रतिशत लोग आज भी प्राकृतिक और हर्बल चिकित्सा के द्वारा अपने रोगों का निवारण करते है। by: Deepak Acharya Published: 1 Feb 2017Updated:1 Feb 2017 कौन सा विज्ञान ज्यादा असरकारक और प्रचलित है, आधुनिक औषधि विज्ञान या परंपरागत हर्बल औषधि ज्ञान? अक्सर ये विवाद और बहस का मुद्दा हो सकता है। हालिया जयपुर यात्रा के दौरान ट्रेन में इन दोनों विज्ञान के जानकारों की बहस सुनकर सहज उनके करीब जा पहुंचा और ध्यान से बहस को सुनता रहा। आधुनिक औषधि विज्ञान के प्रतिनिधि महोदय विज्ञान की इस शाखा को महत्व देते हुए बखान कर रहे थे कि लोग आज भी झोलाछाप चिकित्सकों और गाँव-देहाती ज्ञान को अपनाकर समस्याओं को गले लगा लेते हैं। लगातार विरोधाभास होने पर हर्बल विज्ञान की पैरवी करने वाले महोदय ने बहस को तूल देते हुए जानकारी दी कि किस तरह आधुनिक विज्ञान की दवाओं के नकारात्मक असर के चलते उनके शरीर पर काले धब्बे बन गए और अब वे हर्बल औषधियों के उपयोग के बाद बेहतर महसूस कर रहे हैं। एक तीर इस तरफ से चलता तो दूसरा उस तरफ से, यह दौर चलता रहा। कभी किसी एक ने दूसरे से सवाल किया कि हाथ-पैर की हड्डियों के टूटने पर वो किस तरफ इलाज के लिए जाएंगे तो जवाब में यह सवाल आया कि क्या आपके पास पीलिया या बवासीर का इलाज है? आपका विज्ञान इतना आधुनिक है तो क्यों नहीं अब तक इन रोगों का समाधान आया? बहस जोरदार चलती रही। इस तरह की बहस अक्सर सुनने में आती है और सच्चाई भी यही है कि बहस होना जायज है। दरअसल औषधि विज्ञान की इन दोनों शाखाओं में मरीजों को परोसने बहुत कुछ है और सवाल यह महत्वपूर्ण नहीं कि कौन सा विज्ञान अति महत्वपूर्ण है। मेरे खयाल से सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कौन से औषधि विज्ञान से मरीज ठीक हो रहा है, रोगमुक्त हो रहा है। औषधि विज्ञान की इन दोनों शाखाओं में एक महत्वपूर्ण संबंध है, संबंध भी परंपरागत है। सदियों से पौधों को मनुष्य ने अपने रोगनिवारण के लिए उपयोग में लाया है और विज्ञान ने समय-समय पर इन पौधों पर शोध करके उसे आधुनिकता का जामा भी पहनाया है। चलिए आज जानते हैं परंपरागत हर्बल ज्ञान पर आधारित आधुनिक औषधि विज्ञान के बारे में और कोशिश की जाए कि दोनों तरह के औषधि विज्ञान की महत्ता को समझा जाए। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रपट के अनुसार विकासशील देशों के 80 से अधिक प्रतिशत लोग आज भी प्राकृतिक और हर्बल चिकित्सा के द्वारा अपने रोगों का निवारण करते है। दुनिया के इतने बड़े तबके के द्वारा हर्बल औषधियों को अपनाया जाना अपने आप में एक प्रमाण है कि ये दवाएं काफी कारगर हैं। मजे की बात तो ये भी है कि अब विकसित देशों में भी हर्बल ज्ञान पैर पसारना शुरू कर दिया है, और उसकी वजह यह है कि इस ज्ञान पर विज्ञान का ठप्पा लगना शुरु हो गया है। सच्चाई भी यही है कि आधुनिक औषधि विज्ञान को भी दिन-प्रतिदिन नई दवाओं की जरूरत है। आधुनिक औषधि विज्ञान को एक नई दवा को बाजार में लाने में 15 से अधिक साल और करोड़ों रुपयों की लागत लग जाती है और अब विज्ञान की इस शाखा को पारंपरिक हर्बल ज्ञान में आशा की किरण नज़र आ रही है। जहां अनेक वर्तमान औषधियों के प्रति रोगकारकों या वाहकों (सूक्ष्मजीवों/कीट) में प्रतिरोध विकसित हो चुका है तो वहीं दूसरी तरफ निश्चित ही आधुनिक विज्ञान को इन सूक्ष्मजीवों/कीटों के खात्मे के लिए नई दवाओं की आवश्यकता है और ये आवश्यकता पूर्ति 15 साल तक के लंबे इंतजार के बाद पूरी हो तो विज्ञान के लिए शर्मिंदगी की बात है और ऐसी स्थिति में पारंपरिक हर्बल ज्ञान एक नई दिशा और सोच को जन्म देने में कारगर साबित हो सकता है। ना सिर्फ वैज्ञानिकों में नई कारगर दवाओं को लेकर खोज की प्रतिस्पर्धा है बल्कि अनेक फार्मा कंपनियों में भी इस बात को लेकर अच्छी खासी होड़ सी लगी पड़ी है कि कितने जल्दी नई कारगर दवाओं को बाजार में लाया जाए। आधुनिक औषधि विज्ञान के इतिहास पर नजर मारी जाए तो समझ पड़ता है कि धीमे-धीमे ही सही लेकिन इसने पारंपरिक हर्बल ज्ञान को तवज्जो जरूर दी है। सिनकोना की छाल से प्राप्त होने वाले क्वीनोन की बात की जाए या आर्टिमिशिया नामक पौधे से प्राप्त रसायन आर्टिमिसिन की, दवाओं की प्राथमिक जानकारी आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान से ही मिली। इन दोनों दवाओं को मलेरिया के उपचार के लिए सबसे बेहतर माना गया है। सन 1980 तक बाजार में सिर्फ सिनकोना पौधे से प्राप्त रसायन क्वीनोन की ही बिक्री होती थी, मलेरिया रोग के उपचार में कारगर इस दवा का वर्चस्व बाजार में काफी समय तक रहा, लेकिन चीन में पारंपरिक हर्बल जानकारों द्वारा सदियों से इस्तेमाल में लाए जाने वाले आर्टिमिसिया पौधे की जानकारी जैसे ही आधुनिक विज्ञान को मिली, फटाफट इस पौधे से आर्टिमिसिन रसायन को प्राप्त किया गया और झट बाजार में क्वीनोन के अलावा आर्टिमिसिन भी उपलब्ध हो गयी। सन 2004 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी आर्टिमिसिन को दुनिया भर में उपचार में लाने के लिए स्वीकृति दे दी। सदियों से अपनाए जाने वाले इस नुस्खे को बाजार में आने और आम चिकित्सकों द्वारा अपनाए जाने में देरी की वजह सिर्फ यही रही कि आधुनिक विज्ञान के तथाकथित पैरवी करने वालों ने इस पर इतना भरोसा नहीं जताया। यदि चीन के पारंपरिक हर्बल जानकारों से मिलकर इस दवा के प्रभावों की प्रामाणिकता पर खुलकर बात होती, भरोसे की नींव मजबूत होती तो शायद इतना वक्त ना लगता। क्वीनोन और आर्टिमिसिन बाजार में पूरी तरह से आ पाती, उससे पहले ही खबरें आने लगीं कि आफ्रिकन मच्छरों ने दोनों दवाओं के प्रति प्रतिरोधकता विकसित कर ली है, यानि मच्छरों पर इनका खासा असर होना बंद हो चुका है। अब चूंकि एक सफलता हाथ आई, भले ही कम समय के लिए, लेकिन विज्ञान भी पारंपरिक हर्बल ज्ञान का लोहा मान बैठा। आज आधुनिक विज्ञान की मदद से पारंपरिक हर्बल ज्ञान को पहचान मिलना शुरू हो रही है लेकिन आज भी अनेक लोगों के बीच हर्बल ज्ञान को लेकर भरोसे की कमी है। हालांकि इस भरोसे की कमी के पीछे अनेक तथ्य हैं, जिनमें हर्बल दवाओं की शुद्धता, मानक माप-दंड, नकली दवाओं का बाजार में पसारा हुआ पांव, बगैर शोध और परीक्षण हुए दवाओं का बाजारीकरण प्रमुख हैं जिन पर चर्चा किसी और लेख में की जाएगी। (लेखक हर्बल जानकार हैं ये उनके अपने विचार हैं।)

https://www.gaonconnection.com/samvad/what-modern-traditional-medicine-knowledge-more-effectively

प्राचीन चिकित्सा पद्धति

इतिहास[संपादित करें]

शब्द के अर्थ तथा इतिहास के अनुसार यथेष्ट काल तक चिकित्सा केवल रोगों को दूर करनेवाले उपचारों की संगृहीत विद्या थी। इसमें साधारण शल्यकर्म और प्रसवकर्म तक के लिये कोई स्थान नहीं था तथा लोकस्वास्थ्य की तो कल्पना भी असंभव थी।
अति प्राचीन काल में चिकित्सा की नींव ऐसे उपचारों पर पड़ी, जिनमें रोगहरण के लिये भूत प्रेतों की बाधा को दूर करना आवश्यक समझा जाता था। इन उपचारों से शरीर की अवस्था अथवा उसके घावों इत्यादि का कोई संबंध नहीं होता था। कभी-कभी चिकित्सक अनुभवसिद्ध ओषधियों का प्रयोग भी करते थे। कालांतर में ज्ञात ओषधियों की संख्या बढ़ती गई और झाड़ फूँक के प्रयोग ढीले पड़ने लगे। ईसा से 500 वर्ष पूर्व के, मिस्र देश स्थित पिरामिडों से प्राप्त "ईबर्स पैपाइरस (Ebers Papyrus) नामक लेख ऐसे ही समय का प्रतीक है।
चिकित्सा में पहला व्यापक परिवर्तन बुद्धपूर्व भारत की दिवोदास सुश्रुत परंपरा द्वारा हुआ। इसमें ओषधियों के प्रयोग के साथ साथ शवों के व्यवच्छेदन से प्राप्त ज्ञान का उपयोग प्रारंभ हुआ और दोनों प्रकार की चिकित्साओं को एक ही पंक्ति में रखा गया। इस परंपरा के प्रख्यात चिकित्सकों में बुद्धकालीन जीवक का नाम उल्लेखनीय है, जिन्होंने शल्यकर्म और वैद्यक को समान महत्व देकर उन्हे पूर्णत: समकक्ष बनाया। इसके पश्चात् अनेक भारतेतर देशों ने भी शल्यकर्म को चिकित्सा का अभिन्न अंग बनाना आरंभ किया तथा इसी प्रसंग में प्रसवकर्म भी चिकित्सा के भीतर आया।
ईसा पूर्व 460 वर्ष के पश्चात् विख्यात चिकित्सक हिपाक्रेटिज हुए, जिन्होंने चिकित्सा को धर्मनिरपेक्ष तथा पर्यवेक्षणान्वेषणमुखी व्यापक व्यवसाय बनाया। मिस्र का सिकंदरिया नामक नगर उस समय इस विद्या का केंद्र था। यहाँ इस परंपरा को 200 वर्षों तक प्रश्रय मिला, किंतु इसके बाद यह लुप्त होने लगी। ईसा पश्चात् 1400 वर्ष तक धर्मांधता के प्राबल्य के कारण वैज्ञानिक चिकित्सा का विस्तार नगण्य रहा, किंतु यूरोप के पुनर्जागरण पर विज्ञान की चतुर्दिक् वृद्धि होने लगी, जिसने चिकित्सा को विशालता दी तथा विभिन्नताओं को हटाया।

चिकित्सा की शाखाएँ[संपादित करें]

प्राचीन काल में मनुष्य सूर्यप्रकाश, शुद्ध हवा, जल, अग्नि, मिट्टी, खनिज, वनस्पतियों की जड़, छाल, पत्ती आदि द्रव्यों से अनुभव के आधार पर चिकित्सा करता था। इनके गुणधर्म उसे मालूम न थे। इसी प्रकार, रोगों का ज्ञान न होने से, वे रोगों के उत्पन्न होने का कारण देवताओं का कोप समझते थे और उन्हें प्रसन्न करने का मंत्र-तंत्रों से प्रयत्न करते थे। पीछे जैसे जैसे रोगों का ज्ञान बढ़ा, दैवी चिकित्सा का जोर घटता गया और आनुभविक चिकित्सा का विस्तार होता गया। पीछे मैर्केज़ी (Mackenzie), कोख (Koch), एरलिच (Ehrlich) इत्यादि के परिश्रम और सूक्ष्म अवलोकन से आनुभविक चिकित्साद्रव्यों की मूलकता सिद्ध हो गई और अनेक नए द्रव्य आविष्कृत हुए। 20वीं शताब्दी तक चिकित्सा बहुत अधिक विकसित हो गई। आज चिकित्सा की अनेक शाखाएँ बन गई हैं, जिनमें निम्नलिखित विशेष उल्लेखनीय हैं :

रोगनिवारक चिकित्सा[संपादित करें]

इसमें स्वच्छता, जलशोधन, मोरीपनाले के पानी और मल का विनाश, मक्खी, मच्छर तथा रोगवाहक अन्य कीटों का विनाश, रोगियों को अलगाया जाना, विसूचिकादि रोगों के टीके, त्रुटिजन्य रोगों के लिये त्रुटि द्रव्यों का वितरण, यक्ष्मा, रति रोग, गर्भिणी स्त्रियों तथा बालकों के लिये निदानिकाओं (chinics), की स्थापना, बच्चों के लिये दूध के वितरणादि का समावेश होता है।

मनश्चिकित्सा (Psychotherapy)[संपादित करें]

मानसिक विकारों से उत्पन्न शारीरिक विकारों के लिये यह चिकित्सा होती है। अनेक शारीरिक रोग मानसिक चिकित्सा से दूर हो जाते हैं। इसके लिये ईश्वर पर श्रद्धा रखना, पूजा पाठ पर विश्वास रखना, मनोरजंनार्थ गायन, वादन, रम्य-दृश्य-दर्शन आदि मन को शांत और प्रसन्न रखनेवाले उपाय अच्छे होते6m56हैं।

औषधि चिकित्सा (Drug therapy)[संपादित करें]

इसमें विविध ओषधियों का सेवन कराया जाता है। अनेक असाध्य रोगों की अचूक ओषधियाँ आज बन गई हैं और निरंतर बन रही हैं।

आहार चिकित्सा (Dieto therapy)[संपादित करें]

अनेक रोग, जैसे मधुमेह, बृक्कशोथ, स्थूलता, जठरब्रण इत्यादि आहार से संबंध रखते हैं। इनका निवारण खाद्यों एवं पेयों के नियंत्रण से किया जा सकता है।

रसचिकित्सा (Chemotherapy)[संपादित करें]

इसमें ऐसे रसद्रव्यों से चिकित्सा की जाती है जो मनुष्य के लिये विषैले नहीं होते, पर रोगाणुओं के लिये घातक होते हैं।

अंत:स्रावी चिकित्सा (Endocrine therapy)[संपादित करें]

इसमें अंत:स्राव या संश्लिष्ट अंत:स्राव द्वारा रोगों का निवारण होता है।

यांत्रिक चिकित्सा (Mechano therapy)[संपादित करें]

इसमें मालिश, कंपन, विविध व्यायाम, स्वीडीय अंगायाम (Swedish movement) इत्यादि द्वारा चिकित्सा होती है।

जीवचिकित्सा (Biotherapy)[संपादित करें]

इसमें सीरम, वैक्सीन, प्रतिविष इत्यादि द्वारा चिकित्सा होती है।

अन्य चिकित्साएँ[संपादित करें]

इनमें शल्यकर्म, दहन चिकित्सा, विद्युद्वारा चिकित्सा (Electro shock therapy), स्नान चिकित्सा, वायुदाब चिकित्सा (Aerotherapy), सूर्यरश्मि चिकित्सा, (Helio therapy) इत्यादि आती हैं।

चिकित्सा की रीतियाँ और प्राविधिकी[संपादित करें]

चिकित्सा की सभी क्रियाओं के आठ विभाग किए जा सकते हैं :

प्राथमिक कृत्य[संपादित करें]

इसमें तात्कालिक या स्थितिक निदान, प्राथमिक उपचार, चिकित्सा-क्षेत्र-निर्धारण, छुतहे रोगियों का पृथक्करण इत्यादि हैं।

अस्पतालीकरण[संपादित करें]

इसमें घातक तथा कठिन रोगों के रोगियों को उचित स्थान में रखकर जीवनरक्षा के आवश्यक उपायों के प्रयोग, नियमित पर्यवेक्षण तथा प्रयोग और यंत्रों की सहायता से निदान का प्रबंध किया जाता है। रोगियों का अस्पतालीकरण उनके घर पर भी होता है।अस्पताल में उन मरीजों को भर्ती किया जाता है जिनको I.V.medicine देना हो या operation करना हो या emergency treatment देना हो या accidental cases में अस्पताल की आवश्यकता पड़ती है !अस्पताल में मरीज़ की अवस्था के अनुसार ICU या ward में रखा जाता है या सुविधा दी जाती है जब मरीज़ को I.V.injection से tablet पर रखा जाता है तब मरीज़ की reports के normal range में आने के बाद अस्पताल से discharge कर दिया जाता है !

विसंक्रमण[संपादित करें]

सभी प्रकार की शल्यक्रियाओं, इंजेक्शनों तथा प्रसव कार्यों के पूर्व चिकित्सकों की त्वचा तथा हाथों को रोगाणुविहीन बनाया जाता है। कटे हुए स्थानों में श्वास तथा स्पर्श से रोगाणुओं की पहुँच रोकने के लिये शल्यकारों का विशेष पहनावा, दस्ताने इत्यादि पहनना आवश्यक होता है। लोकस्वास्थय के हितकारी उपचारों में भी विविध प्रकार के विसंक्रमणों का बहुत महत्व है।

भेषजसेवन[संपादित करें]

शीघ्र प्रभाव के लिये विभिन्न स्थितियों में ओषधियों का उचित मात्रा में तथा उचित रीति से सेवन कराया जाता है। सेवन की सात प्रचलित रीतियाँ हैं : आंत्रेतर (Parenteral) इंजेक्शन, मुख, प्राकृतिक गुहाओं, श्वसनमार्ग तथा त्वचा द्वारा और किरणों तथा विकिरण से। यांत्रिक भेषजसेवन छ: प्रकार के होते हैं : अधिचर्मीय, अंत:चर्मीय, अधस्त्वकीय, शिरामार्गीय, मांसमार्गीय तथा अंतरंगगत। इनमें से शिरामार्गीय और अंतरंगगत रीतियाँ बहुत निकट हैं तथा असाधारण स्थितियों में प्रयुक्त होती हैं।

शस्त्रोपचार तथा हस्तकौशल[संपादित करें]

इनके प्रयोग रुग्ण अंगों को काटकर निकालने अथवा कुरूपता को सुधारने इत्यादि में शल्यकारों द्वारा तथा प्रसवकार्यों में इसके विज्ञों द्वारा किए जाते हैं।

आरोग्यांकन[संपादित करें]

चिकित्साधीन रोगियों की साधारण रीति से, अथवा यंत्रों या प्रयोगशाला की सहायता से, जाँच कर उनकी अवस्था का पता लगाते रहना चिकित्सा का महत्वपूर्ण अंग है।

पुनर्वासन[संपादित करें]

निरोग हुए, किंतु सीमित सामर्थ्यवाले लोगों एवं विकलांगों के लिये भविष्य में स्वास्थ्यपूर्ण जीवनयापन के उपाय निश्चित करना भी चिकित्सा का आवश्यक अंग है।

चिकित्सोपरांत संपर्कस्थापन[संपादित करें]

आधुनिक स्तर की पूर्ण चिकित्सा में नीरोग हुए मनुष्य से संपर्क रख, उसकी अवस्था की जानकारी रखना तथा आवश्यक सावधानी के आदेश देना भी संमिलित हैं।

विशेषज्ञता और चिकित्सा परिचालन[संपादित करें]

पहले वैद्यक, शल्यकर्म, तथा प्रसूतिविद्या पृथक्-पृथक् थीं। बाद में इन्हें एक साथ सूत्रबद्ध किया गया। किंतु ज्ञान का विस्तार और तकनीकी में आश्चर्यजनक वृद्धि होने के कारण, वर्तमान काल में विशिष्टकरण (स्पेशलाइजेशन) अनिवार्य हो गया। फिर भी संक्रमण तथा विंसक्रमण के विचार, अद्यतन ढंगों से ओषधियों के प्रयोग, विश्राम तथा व्यायाम के प्रयोग, विश्राम तथा व्यायाम के प्रयोग इत्यादि बातें सब रोगों या विकृतियों के उपचार में एक से ही सिद्धांतों पर आधारित हैं।

चिकित्सा और प्रकृति की शक्ति[संपादित करें]

रोग दूर करने में प्रकृति की शक्ति ही मुख्य है। हिपाक्रेटीज के काल से आज तक रोगनिवारण के लिये चिकित्सक इसी शक्ति का उपयोग करते आए हैं। वे आधुनिक साधनों का तभी प्रयोग करते हैं, जब वें देखते हैं कि प्रकृति को सहारे या सहायता की आवश्यकता है।

भारतमें प्रचलित चिकित्सा पद्धतियाँ[संपादित करें]

भारत में इस समय चिकित्सा की चार पद्धतियाँ प्रचलित हैं :
1. ऐलोपैथिक, 2. होमियोपैथिक, 3. आयुर्वैदिक, और 4. यूनानी।
अंग्रेजों के भारत में आगमन के साथ-साथ ऐलोपैथिक पद्धति यहाँ आई और ब्रिटिश राज्यकाल में शासकों से प्रोत्साहन पाने के कारण इसकी जड़ इस देश में जमी और पनपी। आज स्वतंत्र भारत में भी इस पद्धति को मान्यता प्राप्त है और इसके अध्यापन और अन्वेषण के लिये अनेक महाविद्यालय तथा अन्वेण संस्थाएँ खुली हुई हैं। प्रति वर्ष हजारों डाक्टर इन संस्थाओं से निकलकर इस पद्धति द्वारा चिकित्साकार्य करते हैं। देश भर में इस पद्धति से चिकित्सा करने के लिये अस्पताल खुले हुए हैं और उच्च कोटि के चिकित्सक उनमें काम करते हैं।
अंग्रेजों के शासनकाल में ही होमियोपैथिक पद्धति इस देश में आई और शासकों से प्रोत्साहन न मिलने के बावजूद भी यह पनपी। इसके अध्यापन के लिये भी आज अनेक संस्थाएँ देश भर में खुल गई हैं और नियमित रूप से उनमें होमियोपैथी का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। अंग्रेजी शासनकाल में यह राजमान्य पद्धति नहीं थी, किंतु अब इसे भी शासकीय मान्यता मिल गई है।
आयुर्वैदिक पद्धति भारत की प्राचीन पद्धति है। एक समय यह बहुत उन्नत थी, पर अनेक शताब्दियों से मुसलमानों और ब्रिटिश राज्यकाल में शासकों की ओर से प्रोत्साहन के अभाव में इसकी प्रगति रुक गई और यह पिछड़ गई। पर इसकी जड़ इतनी गहरी है कि आज भी देश के अधिकांश व्यक्तियों की चिकित्सा इसी प्रणाली से होती है। भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद आयुर्वेद के अध्ययन में शासन की ओर से कुछ प्रोत्साहन मिल रहा है और वैज्ञानिक आधार पर इसके अध्यापन ओर अन्वेषण के लिये प्रयत्न हो रहे हैं।
यूनानी चिकित्सा पद्धति मुसलमानी शासनकाल में आई और कुछ समय तक मुसलमानी राज्यकाल में पनपी, पर ब्रिटिश शासनकाल में प्रोत्साहन के अभाव में यह शिथिल पड़ गई। फिर भी कुछ संस्थाएँ आज भी चल रही हैं, जिनमें यूनानी पद्धति के पठन पाठन का विशेष प्रबंध है।

विकिपीडिया से 
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%BE

NDDY 1ST YR 1.01 प्राकृतिक चिकित्सा परिभाषा एवं सिद्धान्त

Jump to navigation Jump to search प्राकृतिक चिकित्सा (नेचुरोपैथी / naturopathy) एक चिकित्सा-दर्शन है। इसके अन्तर्गत रोगों का उपच...